कलचुरी वंशावली एवं शासक

कलचुरी वंश इतिहास में छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के इतिहास का स्वर्णिम काल कहा जाता है , लगभग बारह सौ सालों का लंबा शासन काल कलचुरी वंश का गौरव है l कलचुरी वंश में मुख्य रूप से दो शाखाएं हुई है जिनसे से एक महिष्मति शाखा के नाम से और दूसरी त्रिपुरी शाखा के नाम से प्रसिद्द हुई , महिष्मति की कई शाखाये हुई जिसमे से त्रिपुरी , रतनपुर , रायपुर और लहुरी शाखा मुख्य रूप से प्रसिद्द हुई l

  • त्रिपुरी के कलचुरी
  • रतनपुर शाखा
  • रायपुर शाखा
  • लहुरी शाखा

महिष्मति का कलचुरी राजवंश

शासक महाराजा कृष्णराज :

इतिहास: महिष्मति शाखा कलचुरी संवत 248 ई० में महाराजा कृष्णराज के द्वारा स्थापित की गई , महराजा कृष्णराज का शासन काल (सन 550-575 ई०) रहा , उज्जैयिनी , विदिशा और आनंदपुर के क्षेत्रों को नियंत्रित किया महाराजा कृष्णराज ने विदर्भ को भी अपने राज्य में मिलाया और नियंत्रित किया , महाराजा कृष्णा राज महाराजा काकवर्ण के पुत्र थे , महाराजा कृष्णराज हैहय वंश के प्रथम शासक के रूप में जाने जाते है जिन्होंने कलचुरी वंश की स्थापना की , स्थापत्य के क्षेत्र में अजंता और एलोरा की गुफाओं का निर्माण कराया , हरजा कृष्णराज धर्म निरपेक्ष राजा के र्रोप में जाने जाते थे , हिन्दू धर्म व्यवस्था के अनुसार शैव पंथ के अनुयायी थे , किन्तु इनके राज्य में अन्य धर्मों के प्रति भी सहिष्णुता दिखाई देती है , अजंता की गुफाएं बौद्ध से सम्बंधित है जबकि एलोरा की गुफाओं में बौद्ध , जैन और हिन्दू धर्म से सम्बंधित गुफाएं बनवाई गई , इनके शासन काल से ही कलचुरी राजवंश की कालिंजर शाखा की शुरुवात हुई l कृष्णराज के पुत्र शंकरगण था , महाराजा शंकरगण शक्तिशाली राजा हुए l

स्थापत्य कला : अजंता एवं एलोरा गुफाओं का निर्माण , चांदी के सिक्के ब्राम्ही लिपि में चलवाए l

कुर्सीनामा – हैहय वंश के राजा काकवर्ण के पुत्र महाराजा कृष्णराज , कृष्णा राज के पुत्र शंकरगण हुए जो की महिष्मति कलचुरी वंश के शासक हुए l

शासक महाराजा शंकरगण :

इतिहास : महाराजा कृष्णराज के पुत्र शंकरगण ने महिष्मति में राज्य किया , इनका शासन काल सन 575 से 600 ई० तक रहा , शंकरगण ने अपने राज्य का विस्तार हैदराबाद तक किया, इनका एक दानपात्र सन 1995 में नासिक जिले में अमोना से प्राप्त हुआ है ,इनका शासन महाराष्ट्र तक फैला हुआ था , महाराजा शंकरगण के पुत्र बुधराज हुए जो की इनकी मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठे l

स्थापत्य कला : शैव मंदिरों का निर्माण , कृष्णराज के चलाये हुए सिक्कों को प्रचलन में लाया जाना l l

कुर्सीनामा: महाराजा कृष्णराज के पुत्र शंकरगण हुए , शंकरगण पुत्र हुए बुधराज जो की शंकरगण के उत्तराधिकारी बने l

शासक महाराजा बुधराज :

इतिहास : महाराजा शंकरगण की मृत्यु होने के पश्चात इनके पुत्र बुधराज ने महिष्मति में उत्तराधिकारी हुए और शासन संभाला , इनका शासन काल सन 600 से 620 ई० तक रहा , राज्यारोहन के कुछ ही वर्ष बाद उसने मालवा पर अधिकार कर लिया। बुद्धराज ने पूर्वी मालवा पर विजय प्राप्त किया था। लेकिन वे पश्चिमी मालवा को वल्लभी से हार गए। अपने शासनकाल के दौरान, चालुक्य राजा मंगलेश ने 600 ई० में दक्षिण से कलचुरी साम्राज्य पर हमला किया। युद्ध में उनकी विजय नहीं हुई। महाकूट-स्तंभ-लेख से पता चलता है कि चालूक्य नरेश मंगलेश ने इसी बुधराज को पराजित किया था। इस प्रदेश से कलचुरी शासन का ह्रास चालुक्य विनयादित्य (६८१-९६ ई.) के बाद हुआ। त्रिपुरी के आसपास चंदेल साम्राजय के दक्षिण भी कलचुरियों ने अपना साम्राज्य स्थापित किया था।छठी शताब्दी के अंत में बादमी के चालुक्यों के दक्षिण के आक्रमण, गुर्जरों का समीपवर्ती प्रदेशों पर आधिपत्य, मैत्रकों के दबाव तथा अन्य ऐतिहासिक कारणों से पूर्व जबरपुर (जाबालिपुर?) के आसपास बस गए। यहीं लगभग नवीं शताब्दी में उन्होंने एक छोटे से राज्य की स्थापना की जिसे कालांतर में त्रिपुरी शाखा के रूप में जाना गया l

स्थापत्य कला : शैव मंदिरों का निर्माण , कृष्णराज के चलाये हुए सिक्कों को प्रचलन में लाया जाना l वाए l

कुर्सीनामा: महाराजा कृष्णराज के पुत्र शंकरगण हुए , शंकरगण पुत्र हुए बुधराज , बुधराज की पत्नी हुई अन्नत महायी जिनकी पूजा आज भी बुंदेलखंड में भादों की शुक्ल पक्ष की नवमी जिसे अदुख नवमी कहते है होती है , बुधराज के पुत्र हुए शंकरगण प्रथम l महिष्मति का शासन बुधराज के मालवा पराजय के साथ ही ख़तम हो जाता है , और त्रिपुरी की शाखा का उदय होता है l

कलचुरी वंश की त्रिपुरी शाखा के शासक एवम कुर्सीनामा

जैजाकभुक्ति के चन्देलों के राज्य के दक्षिण में आ जबलपुर के निकट कलचुरि राजपूतों का राज्य था। । गुर्जर प्रतिहारों और बदामी के चालुक्यों के उत्तर के पूर्व बुन्देलखंड से लेकर गुजराज और नासिक, तर्क, विशेषकर नर्मदा की उपरली घाटी में, कलचुरी लोग सबसे अधिक शक्तिशाली थे परन्तु गुर्जर -प्रतिहारों और चालुक्यों की शक्ति के उदय से कलचुरियों का प्रभाव डाहल (वर्तमान जबलपुर के निकट तक सीमित रह गया। अब कलचुरी राज्य की राजधानी त्रिपुरी हो गई। इसलिए उनको चेदि, डाहल अथवा त्रिपुरी के कलचुरि कहा जाने लगा। कलचुरि की एक शाखा गोरखपुर में भी स्थापित हुई थी। त्रिपुरी के कलचुरी वंश की नीव राजा वामराज देव 850 – 875 के द्वारा रखी गई , वामराज देव के पुत्र शंकर गण प्रथम हुए और लक्ष्मण राज प्रथम जो की इनके भाई थे को त्रिपुरी के क्षेत्र में सिंघासन सौंपा , लक्ष्मण राज देव के पुत्र जो की कोकल्ल प्रथम हुए ने त्रिपुरी के कलचुरी वंश में स्थापना करके आगे चलाया l हालाँकि वामराज देव भी कलचुरी वंश के त्रिपुरी शाखा के संस्थापक थे लेकिन , राज्य विस्तार और अन्य उपलब्धियों और अभिलेखों के आधार पर कोकल्ल प्रथम को ही त्रिपुरी वंश के कलचुरी वंश का वास्तविक संस्थापक माना गया l

महाराजा कोक्कल-प्रथम (850-890)

इतिहास: कोक्कल-प्रथम कलचुरि वंश का संस्थापक तथा प्रथम ऐतिहासिक शासक था जिसने राष्ट्रकूटों और चन्देलों के साथ विवाह-सम्बन्ध स्थापित किये। प्रतिहारों के साथ कोक्कल-प्रथम का मैत्री-सम्बन्ध था। इस प्रकार उसने अपने समय के शक्तिशाली राज्यों के साथ मित्रता और विवाह द्वारा अपनी शक्ति भी सुदृढ़ की। कोक्कल-प्रथम अपने समय के प्रसिद्ध योद्धाओं और विजेताओं में से एक था। कलचुरि अभिलेखों में कोक्कल को अनेक विजयों का गौरव प्रदान किया गया है, परन्तु जैसा कि पीछे कहा जा चुका हम इस युग के अभिलेखों में उल्लिखित सभी बातों को ऐतिहासिक सत्य रूप में स्वीकार नहीं कर सकते। अतएव कलचुरि अभिलेखों के आधार पर कोक्कल को अपने समय का सबसे महान् विजेता नहीं कहा जा सकता। फिर भी इस बात में सन्देह नहीं कि कोक्कल पराक्रमी एवं साहसी विजेता था और उसने अपनी विजयों द्वारा एक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की। एक अभिलेख से पता चलता है कि कोक्कल-प्रथम ने अपने राष्ट्रकूट जामाता को वेंगी के विनयादित्य-तृतीय (पूर्व चालुक्यराज) के विरुद्ध आश्रय तथा सहायता प्रदान की। एक अन्य अभिलेख से यह ध्वनित होता है कि कोक्कल ने भोज-प्रथम को सुरक्षा प्रदान कर, प्रतिहार नरेश महीपाल से शत्रुता कर ली, परन्तु भोज-प्रथम उसका मित्र हो गया। कोक्कल को अभिलेखों में सारी पृथ्वी का विजेता तथा अपने समकालीन नरेशों का कोषहर्ता कहा गया है जो स्पष्टतया प्रशस्तिमात्र है। अपने शासन-काल के अन्तिम समय में कोक्कल ने उत्तरी कोंकण पर आक्रमण किया और पूर्वी चालुक्यों तथा प्रतिहारों के विरुद्ध राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण-द्वितीय को सहायता प्रदान की। कोक्कल ने अपनी विजयों के द्वारा जिस राज्य की स्थापना की, उसमें उसकी मृत्यु के शीघ्र बाद ही विघटन के तत्व उत्पन्न हो गये जिससे कलचुरियों की शक्ति क्षीण होने लगी। परन्तु ग्यारहवीं शताब्दी में गांगेयदेव की अधीनता में कलचुरियों को भारत की सबसे महान् राजनैतिक शक्ति होने का गौरव प्राप्त हो गया। कोक्कल प्रथम के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र शंकरगण सिंहासन पर बैठा। शंकरगण के उपरान्त क्रमश: युवराज प्रथम, लक्ष्मणराज, युवराज द्वितीय तथा कोक्कल द्वितीय कलचुरि राज्य के शासक हुए। कोक्कल द्वितीय को गुजरात के चालुक्य नरेश चामुण्डिराज को पराजित करने का श्रेय है। उसने कुन्तल नरेश सत्याश्रय और गौड नरेश महिपाल को पराजित किया। कोक्कल द्वितीय के बाद गांगेयदेव कलचुरि राज्य का राज्याधिपति बना।

पत्नी : चंदेल राजकुमारी नट्टा देवी l

कुर्सीनामा: वामराज देव के पुत्र हुए शंकर गण प्रथम (890 -910 ई०) , वामराज देव के भाई लक्षमण राज देव जिन्हें त्रिपुरी का शासक घोषित किया , लक्षमण राज देव के पुत्र हुए कोकल्ल प्रथम (850-890 ई०) यही से त्रिपुरी के कलचुरी वंश का स्वर्णिम काल आरम्भ हुआ l कोकल्ल प्रथम के 18 पुत्र हुए जिसमे से कोक्कल प्रथम के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र शंकरगण सिंहासन पर बैठा।